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बा बा बाई बाई

दुनिया की इस हाट में हर चीज़ बिक सकती है, बेचने का हुनर आना चाहिये, कहावत है—घी खायें शक्कर से और दुनिया खायें मकर से। अपनी चालाकी से मिट्टी को भी सोना सिद्ध किया जा सकता और उसकी ज़रूरत भी पैदा की जा सकती है। आंख के अंधे और गांठ के पूरे कितने ही लोग […]
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दुनिया की इस हाट में हर चीज़ बिक सकती है, बेचने का हुनर आना चाहिये, कहावत है—घी खायें शक्कर से और दुनिया खायें मकर से। अपनी चालाकी से मिट्टी को भी सोना सिद्ध किया जा सकता और उसकी ज़रूरत भी पैदा की जा सकती है। आंख के अंधे और गांठ के पूरे कितने ही लोग उसके लिए उतावले हो जाएंगे। वास्तव में बाजार का तंत्र इतना सशक्त है कि यहां पानी से लेकर परमात्मा तक सबको एक-सा बिकाऊ बना दिया गया है। उसका जाल इतनी चतुराई से फैलाया जाता है कि उसके फंदे से बच पाना असंभव नहीं तो दुस्तर अवश्य हो जाता है। मीडिया उनके प्रचार में लगा रहता है। यह घोषित कर भी कि ‘विज्ञापित उत्पाद की गुणवत्ता और उपादेयता को उपभोक्ता स्वयं परख लें। हम इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे’ , वे बहुत धड़ल्ले से उसका प्रचार करते हैं।
आजकल अध्यात्म का बाजार ज्यादा गर्म है। सुबह होते ही प्राय: हर चैनल पर कोई न कोई ‘ईश्वर-पुत्र’  अध्यात्म का घोल उड़ेलता हुआ नज़र आ जाता है, भले ही इसके लिए चैनल वालों को लाखों रुपये देने पड़ते हों। उसको पता है भक्तगण इनको कई गुना करके लौटा देंगे। जी हां, नाम के ये व्यापारी देश के कोने-कोने में कुकुरमुत्ता से सिर उठाये हैं। ये बड़ी चालाकी से परमात्मा के नाम पर भ्रम और अंधविश्वास की सामग्री परोसते हैं। कोई परलोक सुधारने की बात करता है तो कोई इस लोक को संवारने पर ज़ोर देता है। ऐसे कपटी संतों के बारे में बाबा तुलसीदास बहुत पहले ही कह गये थे—
मिथ्यारंभ दंभरत जोई।
ता कहं संत कहहिं सब कोई।
सोइ सयान जो पर धन हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी।
जो जितना बड़ा दंभी वह उतना ही बड़ा सन्त। बड़ी चातुरी से वह अपने अनुयायियों का धन हर लेता है। धन लेकर भी जो उनके दु:ख दूर करने में सहायक नहीं होता, तुलसी के अनुसार वह घोर नरक में जाता है—
हरइ सिष्य धन, सोक न हरई।
सो गुरु घोर नरक में परई।
कल किसने देखा है? आज सामने है, इसका फायदा उठाकर ये गुरु ऐश की जिंदगी जीते हैं। कल तक जो नोन तेल हल्दी बेचते थे, साइकिल की मरम्मत करते थे, गली-गली लादी लगाकर कपड़ा बेचते थे या ऐसे ही छोटे-मोटे धंधों में लगे थे आज ‘बाबाÓ बनकर ‘नामÓ का धन्धा कर रहे हैं। जहां बिना हींग फिटकड़ी लगाये चोखा रंग आता है। बस अपना लोक-संपर्क बढ़ाकर अपनी चमत्कारी शक्तियों का ढिंढोरा पीटना शुरू कर दीजिये, लोग अपने आप जुटते जायेंगे। सरकार ने राष्ट्रीयकरण के नाम पर दूध-डबलरोटी, आलू, टमाटर बेचे हैं, वह इन संतों का राष्ट्रीयकरण क्यों नहीं करती? इनको वेतन देकर आय सरकारी खज़ाने में इन दिनों एक बाबा की बहुत चर्चा हो रही है। उन्होंने ‘बाबागीरी’  का धंधा अपनाया। अब वह ‘ऊपर वालेÓ की ‘किरपाÓ बांटते हैं। इससे प्रतिदिन उनकी आमदनी लाखों में होती है। कई बड़ी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां भी इतना लाभ नहीं देती होंगी।
पिछले कई सालों में बाबा जी ने करोड़ों की घोषित संपत्ति अर्जित कर रखी है। हिसाब से तो इससे ज्यादा तो एक साल में ही इकट्ठा हो जाता है। कलई खुली तो अब आपदा प्रबंधन में लगे हैं। अंतर्विरोध देखिये, जिन चैनलों ने उन्हें नंगा किया वही ढांपने में सहायक हो रहे हैं—दायित्व और धंधे का संतुलन—
रात को पी, सुबह  को तौबा कर ली
रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत भी न गई।
यह कोई अकेला व्यक्ति नहीं है। ऐसे धंधेबाजों की एक पूरी श्रेणी है। अब अपने-अपने ढंग से लोगों की कमजोरियों का फायदा उठा रहे हैं। इनकी जीवनशैली राजसी है और संपत्ति अकूत। कभी इनके ‘दर्शनÓ मुफ्त में हो जाते थे। अब टिकट खरीदना पड़ता है जो हज़ारों में भी हो सकता है। इस पर भी यह पक्का नहीं कि आप बाबा को निकट से देख ही सकें। अंगरक्षकों और हवारियों की एक पूरी फौज उनको घेरे रहती है। उनके स्याह-सफेद को वे ही ढांपते हैं। मुझे ऐसे चमत्कारी बाबाओं से सदा से ही एक वितृष्णा रही है और कभी-कभी उन अनुयायियों से भी, जो अपने दिल और दिमाग को गिरवी रख, उनकी कही हर बात पर आप्त-वाध्य के रूप में विश्वास कर लेते हैं। इसके लिए हाशिये पर बैठे कुछ लोगों की आपत्तियों का भी सामना करना पड़ जाता है। उनका कहना है—
न सुनो, गर बुरा कहे कोई।
न कहो गर बुरा करे कोई।
हम ही किसी को बुरा क्यों कहें। हो सकता है उनको दिव्य शक्तियां प्राप्त हों ही। परन्तु यह दिल है कि मानता ही नहीं। हम हाले-दिल सुनाएंगे। सुनना, न सुनना आपकी मजर्ी। मुझे याद आता है अपने गांव का मनसू बाबा जिसे बचपन से ही न खाने-पीने की सुध थी और न पहनने ओढऩे की। उसे न सुनाई देता था और न ही वह बोल सकता था। वह उम्र भर नंगा घूमता रहा। किसी ने जबरदस्ती कुछ खिला-पिला दिया तो ठीक, नहीं तो उसे भूख-प्यास भी नहीं लगती थी। लोग उसके पास भी मन्नतें मांगने के लिए आते। मर जाने पर भी आज उसकी समाधि पर हज़ारों का चढ़ावा चढ़ता है। और, वह सट्टा बाबा जो लोगों द्वारा तंग किये जाने पर गालियां निकालता और वे गालियों के शब्दों से ही सट्टïे के नम्बर निकाल लेते। ‘बाबाओंÓ के ऐसे अनेक उदाहरण मेरे सामने हैं।
कहते हैं ‘गुरु नहीं उड़ते, चेले उड़ाते हैंÓ  जो उनकी ‘शक्तियों और सिद्धियोंÓ का आदमी से आदमी तक प्रचार करते हैं। बाबा किसी पर अभिमंत्रित जल छिड़कते हैं तो किसी को विभूति दे देते हैं। किसी को रोग से मुक्ति चाहिये तो किसी को सन्तान। कोई गरीबी से परेशान है तो कोई बेकारी से। आम आदमी की ऐसी ही समस्याएं होती हैं। हल हो जायें तो बाबा की बल्ले-बल्ले, नहीं तो कहीं अपनी ही कमी रही होगी। उनके गिर्द ऐसा चमत्कारी घेरा बना दिया जाता है जिससे अक्ल चुंध्या जाती है।
हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं जिसे विज्ञान की शताब्दी कहा जाता है। आदमी प्रकृति की सब शक्तियों को बस में करने के लिए प्रयत्नशील है। परन्तु उसकी सारी पढ़ाई-लिखाई और विज्ञान की सारी प्रगति भी उसकी पुरानी सोच को बदलने में अक्षम दिखलाई देती है। वह अब भी अनेक भ्रांतियों और अंधविश्वासों से जकड़ा हुआ जान पड़ता है। इनसे छूटे तो बाबाओं के कपटजाल से मुक्त हों। परन्तु शायद वह ऐसा चाहता ही नहीं। उसके मन में कहीं गहरे पैठ चुका है कि उसकी समस्याओं का निदान इन बाबाओं के ही पास है, बावजूद इसके कि उसके झूठ से पर्दा उठा चुका हो।

पुछल्ला

पत्नी से नित्य की खटपट से तंग आकर उसने ‘सन्त’  बनने की सोची। घर से निकला तो द्वार पर सूटकेस लिए हुए पत्नी को प्रतीक्षा करते हुए पाया।

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